मंगलाचरण तथा अग्नि और वसिष्ठ के संवाद रूप से अग्नि पुराण का प्रारम्भ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
लक्ष्मी, सरस्वती,पारवती,गणेश,कार्तिकेय,महादेवजी,ब्रह्मा,अग्नि,इंद्रा,आदि देवता तथा भगवन वासुदेव को में नमस्कार करता हु।
नैमिषारण्य की बात हे। शौनक आदि ऋषि। यगनो द्वारा भगवन विष्णु का यजन कर रहे थे। उस समय वह तीर्थ यात्रा के प्रसंग से सूतजी पधारे। महर्षि यो ने उनका आदर सत्कार करके कहा।
ऋषि बोले – सूतजी ! आप हमारी पूजा स्वीकार करके हमे वह सारसे भी सारभूत तत्त्व बताने की कृपा करे , जिसके जानलेने के मात्र से सर्वग्न्ता प्राप्त होती हे।
सूतजी ने कहा – ऋषियों। भगवन विष्णु ही सरसे भी सारत्व हे। वे श्रुष्टि और पालनहारी के करता और सर्वत्र व्यापक हे। ‘वह विष्णु रूप ब्रह्म में ही हु। इस प्रकार उन्हें जान लेने पर सर्वग्न्ता प्राप्त हो जाती हे।
ब्रह्म के दो स्वरुप जान लेने के योग्य हे। शब्द ब्रह्म और परब्रह्म। दो विद्याए भी जानलेने के योग्य हे। अपरा विद्या और परा विद्या। यह अर्थ वेद की श्रुतिका कथन हे। एक समय की बात हे।
में शुकदेवजी और पेल आदि ऋषि बद्रिकाश्रम को गए। वह हमने व्यास जी को नमस्कार करके हमने प्रश्न किया। तब उन्होंने सारतत्व का उपदेश देना आरम्भ किया।
व्यासजी बोले – सूत ! तुम सुख आदि के साथ सुनो। एक समय मेने मुनियोके साथ महर्षि वशिष्ठ जी से सारभूत परात्पर ब्रह्म के विषय में पूछा था। उस समय उन्होंने मुझे जो उपदेश दिया था वो में तुमको सुनाता हु।
वशिष्ठजी ने कहा – व्यास ! सर्वान्तर्यामी ब्रह्म के दो स्वरुप हे। में उन्हें बताता हु सुनो ! पूर्वकाल में ऋषिमुनि तथा देवताओ सहित मुझसे इसे अग्निदेव ने मुझसे जैसा मुझसे कहा था वही में तुम्हे बता रहा हु।
अग्निपुराण सर्वोत्कृष्ट हे। इसका एक एक अक्षर ब्रह्म विद्या हे। अतएव यह परब्रह्मरूप हे। ऋग्वेद आदि वेद – शास्त्र अपरब्रह्म हे। परब्रह्म स्वरुप अग्नि पुराण सम्पूर्ण देवताओ के लिए परम सुखद हे।
अग्निदेव द्वारा जिसका कथन हुवा हे। यह आग्नेयपुराण वेदो के तुल्य सर्वमान्य हे। यह पवित्र पुराण अपने पाठको और श्रोताजनों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करने वाला हे
भगवन विष्णु ही कलाग्रिरूपसे बिराजमान हे। वही ज्योतिर्मय परात्पर परब्रह्म हे। ज्ञानयोग तथा कर्मयोग द्वारा उन्हीका पूजन होता हे। एक दिन उन विष्णुस्वरूप अग्निदेवसे मुनियो सहित मैंने इसप्रकार प्रश्न किया।
वशिष्टजी ने पूछा – अग्निदेव ! संसार सागर से पार लगाने के लिए नौका रूप परमेश्वर ब्रह्म स्वरुप का वर्णन कीजिये। और सम्पूर्ण विद्याओ के साररूप उस विद्या का उपदेश दीजिये। जिसे जानकर मनुष्य सर्वग्न हो जाता हे।
अग्निदेव बोले – वशिष्ठ ! में ही विष्णु हूँ। में ही कालाग्निरुद्र कहलाता हु। में तुम्हे संपूर्ण विद्याओंका सारभूता विद्याका उपदेश देता हु। जिसे अग्निपुराण कहते हे।
वही सब विद्याओ का सार हे। यह ब्रह्म स्वरुप हे। स्वरमय एवम सर्वकारण भूत ब्रह्म उससे भिन्न नहीं हे। उसमे सर्ग ,प्रतिसर्ग ,वंश,मन्वन्तर ,वंशानुचरित्र ,आदिका तथा मत्स्य कूर्म आदि रूप धारण करने वाले भगवन का वर्णन हे।
ब्राह्मण ! भगवन विष्णु की स्वारूभूता दो विद्याए हे – एक परा दूसरी अपरा। रुक ,यजु:,साम और अथर्व नमक वेद , वेदके छहो ाण्ड – शिक्षा , कल्प , व्याकरण ,निरुक ,ज्योतिष और छंद:शाश्त्र तथा मीमांसा ,धर्मशास्त्र ,पुराण,न्याय ,वैद्यक ,गन्धर्व वैद ,धनुर्वेद और अर्थशास्त्र – ये सब अपरा विद्या हे।
तथा पारा विद्या वह हे। जिससे उस अदृश्य ,अग्राह्य, गोत्ररहित ,चरणहीन,नित्य,अविनाशी,ब्रह्म का बोध हो। इस अग्निपुराण को पारा विद्या समजो।
पूर्व काल में भगवन विष्णु ने मुझसे थता ब्रह्माजी ने देवताओ से जिस प्रकार वर्णन किया था ,उसी प्रकार में भी तुम्हे मत्सय आदि अवतार धारण करने वाले जगत्कारण भूत परमेश्वर का प्रति पादन करूँगा।
इस प्रकार व्यासद्वारा सुतके प्रति कहे गए आदि आग्रेय महापुराण में पहला अध्याय पूरा हुवा।
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