अग्निपुराण - तीसरा अध्याय। Agni Puran - Adhyay 3 - Hindi


   

अग्नि देव कहते है। वशिष्ट ? अब में कूर्म अवतार का वर्णन करूँगा। यह सुनने पर  सब पापो का नाश हो जाता है। पूर्वकाल की बात है। देव असुर संग्राम में , दैत्यों ने देवताओ को परास्त कर दिया। वे दुर्वासा के श्राप से लक्ष्मी से रहित हो गए थे।

तब सम्पूर्ण देवता क्षिरसागर में  शयन करने वाले भगवन विष्णु के पास जाकर बोले – भगवन ! आप देवताओ की रक्षा कीजिये। यह सुनकर श्री हरी ने ब्रह्मा आदि देवताओ से कहा – देवगण ! तुम लोग क्षीरसमुद्र को मथने ,अमृत प्राप्त करने ,और लक्षमि को पाने के लिए असुरो से संधि कर लो।

कोई बड़ा काम और भारी प्रयोजन आ पड़ने पर शत्रुओ से भी संधि कर लेनी चाहिए। में तुम लोगो को अमृत का भागी बनाऊंगा। और दैत्योंको उनसे वंचित रखूँगा। मंदराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेति बनाकर आलस्यरहित हो मेरी सहायता से तुम लोग क्षीरसागरका  मंथन करो।

भगवन विष्णु के ऐसा कहने पर  देवता ,दैत्यों के साथ संधि करके क्षीरसमुद्र पर आये। फिर तो उन्होंने एक साथ मिलकर समुद्र मंथन (samudra manthan) का आरम्भ किया। जिस और वासुकि नाग की पूंछ थी। उसी और देवता खड़े थे। दानव वासुकि नाग के निःश्वाससे क्षीण हो रहे थे। और देवताओ को भगवन अपनी कृपा दृस्टि से परिपुष्ट कर रहे थे। समुद्र मंथन आरम्भ होने पर कोई आधार न मिलने से मंदराचल पर्वत समुद्र में दुब गया।

तब भगवन विष्णु ने कूर्म (कछुए) का रूप धारण करके मंदराचल को अपनी पीठ पर  रख लीया। जब समुद्र मथा जाने लगा। तो उसके भीतर से हलाहल विष प्रगट हुवा। उसे भगवन शंकर ने अपने कंठ में धारण कर लिया। उससे कंठ में काला दाग पडजाने के कारन वे नीलकंठ नामसे प्रसिद्द हुवे।

तत्पश्चात समुद्र से वारुनिदेवी ,पारिजात वृक्ष , कौस्तुभ मणि ,गौए तथा दिव्य अप्सराए प्रगट हुई। फिर लक्ष्मीदेवी का प्रादुर्भाव हुवा। वे भगवन विष्णु को प्राप्त हुई। सम्पूर्ण देवताओ ने उनका दर्शन और स्तवन किया। इससे वे लक्ष्मीवान हो गए।

तदन्तर भगवन विष्णु के अंश रूप धन्वन्तरि , जो आयुर्वेद के प्रवर्तक है ,हाथ में अमृत से भरा हुवा कलश लेके प्रगट हुवे। दैत्यों ने उनके हाथ से कलश छीन लिया। और उनमेसे आधा देवताओ को देकर चलते बने। उनमे जम्भ आदि दैत्य प्रधान थे।

उन्हें जाते देख भगवन विष्णु ने स्री का रूप धारण किया। उस रूपवती स्री को देख दैत्य मोहित हो उठे। और बोले – सुमुखि ! तुम हमारी भार्या हो जाओ और ये अमृत लेकर हमे  पिलाओ। बहुत अच्छा कहकर भगवन ने उनके हाथ से अमृत ले लिया और उसे देवताओ को पीला दिया। उस समय राहु ,चन्द्रमाका रूप धारण करके अमृत पिने लगा। तब सूर्य ,चंद्रमा ने उसके कपट वेश को प्रगट कर दिया।

यह देख भगवन श्रीहरिने चक्र से उसका मस्तक काट दिया। उसका सिर अलग हो गया और भुजाओसहित धड़ अलग रह गया। फिर भगवन को दया आई और उन्होंने राहु को अमर बना दिया। तब ग्रहस्वरूप राहु ने भगवन श्रीहरि से कहा – इन सूर्य और चंद्र को मेरे द्वारा अनेको बार ग्रहण लगेगा।

उस समय संसार के लोग जो कुछ दान करे ,वो सब अक्षय हो। भगवन विष्णु ने तथास्तु कहकर संपूर्ण देवताओ के साथ राहु की बात का अनुमोदन किया। इसके बाद भगवानने स्री रूप त्याग दिया। किन्तु महादेवजी को भगवन के उस स्री रूप का फिर से दर्शन करने की इच्छा हुई।

अतः उन्होंने अनुरोध किया – भगवन ! आप उस स्री रूप का दर्शन करावे। महादेवजी की प्राथना से भगवन ने उनका स्री रूप का दर्शन कराया। वे भगवन की माया से ऐसे मोहित हो गए की पार्वतीजी का त्याग कर उस स्री के पीछे लग गए। उन्होंने नग्न और उन्मत होकर मोहिनी के केश पकड़ लिए।

मोहिनी अपने केशो को छुड़ाकर वहासे चलदी। उसे जाती देख महादेवजी भी उसके पीछे दौड़ने लगे। उस समय पृथ्वी पर जहा जहा भगवन शिव का वीर्य गिरा, वहा वहा शिवलिंगो का क्षेत्र, एवं, सुवर्ण की खाने हो गई। तत्पश्चात : यह माया हे।

यह जानकर भगवन शंकर अपने स्वरुप में स्थित हुवे। तब भगवन श्रीहरि ने प्रगटहोकर शिवजी से कहा – रूद्र ! तुमने मेरी मायाको जित लिया। पृथ्वी पर तुम्हारे सीवा ऐसा कोई पुरुष नहीं है , जो मेरी इस माया को जित सके। भगवन के प्रयत्न से दैत्यों को अमृत नहीं मिल पाया।

अतः देवताओ ने उन्हें युद्ध में मार गिराया। फिर देवता स्वर्ग में बिराजमान हुवे। और दैत्यलोग पाताल में रहने लगे।

जो मनुष्य देवताओ की इस विजयगाथा का पाठ करता है। वह स्वर्गलोक में जाता है।

इस प्रकार विद्याओ के सारभूत आदि आग्नेय महापुराण में कूर्मावतार वर्णन नामक तीसरा अध्याय पूरा हुवा।

अग्निपुराण - चौथा अध्याय >>

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1 comment:

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